कुश Kusha : “पापाह्वय: ‘कु’ शब्द: स्यात् ‘श’ शब्द: शमनाह्वय: । तूर्णेन पाप शमनं येनैतत्कुश उच्यते ।।”
अर्थात्:- ‘कु’ शब्द समस्त पापों का वाचक है और ‘श’ शब्द सभी प्रकार के दोष पापों का नाशक है ,इसलिए शीघ्र ही पापो का नाश करने के कारण इसे “कुश” कहा गया है। कुश जिसे सामन्य घांस समझा जाता है उसका धार्मिक अनुष्ठानों में बड़ा महत्व है। इसको कुश ,दर्भ अथवा डाब भी कहते हैं।
जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुश भी अमृत तत्त्व से युक्त है। इसके सिरे नुकीले होते हैं उखाडते समय सावधानी रखनी पडती है कि जड सहित उखडे और हाथ भी न कटे। कुश का अग्रभाग जो की बहुत ही तीखा होता है इसीलिए उसे कुशाग्र कहते हैं l इसीलिए तीक्ष्ण बुद्धि वालो को भी कुशाग्र कहा जाता है।
कुश Kusha का आध्यात्मिक महत्त्व
कुश / कुशा एक घास है। इसका वैज्ञानिक नाम Eragrostis cynosuroides है। भारत में कुश को डाब ,दर्भ अथवा कांस कहते हैं। अध्यात्म और कर्मकांड शास्त्र में प्रमुख रूप से काम आने वाली वनस्पतियों में कुश का प्रमुख स्थान है। शास्त्रों के अनुसार कुश की जड़ में भगवान ब्रह्मा, मध्य भाग में भगवान विष्णु तथा शीर्ष भाग में भगवान शिव विराजते हैं।
कुश की पवित्री का महत्त्व
कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है।
सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका दुष्परिणाम हमारे मस्तिष्क और हृदय पर पडता है।
कुश आसन का महत्त्व
कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से सभी मंत्र सिद्ध होते हैं। कुश ऊर्जा की कुचालक है। इसलिए इसके आसन पर बैठकर पूजा-वंदना, उपासना या अनुष्ठान करने वाले साधन की शक्ति का क्षय नहीं होता। परिणामस्वरूप कामनाओं की अविलंब पूर्ति होती है। कुश से बने आसन पर बैठकर तप, ध्यान तथा पूजन आदि धार्मिक कर्म-कांडों से प्राप्त ऊर्जा धरती में नहीं जा पाती क्योंकि धरती व शरीर के बीच कुश का आसन कुचालक का कार्य करता है। इस पर बैठकर साधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की वृद्घि होती है। साधक की एकाग्रता भंग नहीं होती। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए
पूजन और श्राद्ध कर्म ( तर्पण ) में कुश का महत्त्व
सनातन धर्म में इसे पूजा और श्राद्ध में काम में लाते हैं। श्राद्ध तर्पण विना कुशा के सम्भव नहीं हैं ।
धार्मिक कर्मकाण्ड में कुश का उपयोग आवश्यक रूप से होता है-
पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि:।
कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया।। – शब्दकल्पद्रुम
कुशा से बनी अंगूठी पहनकर पूजा /तर्पण के समय पहनी जाती है। कुश प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावाश्या की तोडी गई कुश पूरे महीने काम दे सकती है और भाद्रपद माह की अमावश्या के दिन की तोडी कुश पूरे वर्ष काम आती है।
केतु ग्रह के शांति उपायों में कुश का महत्त्व
केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुश की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापना में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म, दशविध स्नान आदि में किया जाता है।
केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। देव पूजन, यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं।
कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है। पूजा समय में यजमान अनामिका अंगुली में कुशा की नागमुद्रिका बना कर पहनते हैं।
वैज्ञानिक महत्व के साथ नेचुरल प्रिजर्वेटिव भी है कुश
कुश का पूजा-पाठ और अनुष्ठानों में सुखी कुश घास का उपयोग किया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि इस पवित्र घास में प्यूरिफिकेशन तत्व होते है। इसका उपयोग दवाईयों में भी किया जाता है। कुश में एंटीऑक्सीडेंट, एंटीओबेसिटी, और एनालजेसिक कंटेंट है। तमिलनाडु की SASTRA एकेडमी की रिसर्च में पाया गया है कि कुश घास एक नेचुरल प्रिजर्वेटिव है। इसलिए इसे ग्रहण के समय में खाने की चीजों में रखा जाता था। जिससे खाने में बैक्टीरिया नहीं पैदा होते।
ग्रहण में कुश का महत्व
सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाला जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए, जिनकी राशि पर ग्रहण पड़ रहा है।
कुश का शास्त्रोक्त महत्व
वेदों ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।
नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। – (देवी भागवत 19/32) अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झडते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता।उल्लेखनीय है कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।
कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, ऊंगली में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है, क्योंकि इसका स्पर्श अमृत से हुआ है।
गरुड़ पुराण में पंचक में मृत्यु के लिए अनुष्ठानों का वर्णन किया गया है। इसमें कहा गया है कि जब पंचक की अवधि के दौरान किसी करीबी रिश्तेदार की मृत्यु होती है, तो एक वर्ष के भीतर, यदि मृत्यु के बाद उचित अनुष्ठान नहीं किए जाते हैं, तो परिवार के पांच सदस्यों की मृत्यु हो सकती है। इसमें दाह संस्कार से पहले शव के कंधों और घुटनों पर कुश घास (जिसे भगवान विष्णु के बाल के रूप में वर्णित किया गया है) से बनी चार छोटी ‘गुड़िया’ रखना शामिल है। इसके साथ मंत्रोच्चार भी किया जाता है।
गरुड़ पुराण में ही ऐसे व्यक्ति के दाह संस्कार के बारे में बताया गया है जिसका शरीर प्राकृतिक आपदाओं, बम विस्फोटों, डूबने आदि में नहीं मिला है। इसमें कहा गया है कि ऐसी परिस्थितियों में मृतक के भौतिक शरीर का प्रतिनिधित्व करने के लिए कुश घास का पुतला बनाया जाना चाहिए और दाह संस्कार की सामान्य रस्मों का पालन किया जाना चाहिए। चिकित्सकीय रूप से भी, यह प्रतिनिधि दाह संस्कार चिकित्सीय है क्योंकि यह संबंधित परिवार के सदस्यों में दुख को कम करने और अभिघातजन्य तनाव विकारों को कम करने में मदद करता है।
ऐसे दें कुश को निमंत्रण
कुश के पास जाएं और श्रद्धापूर्वक उससे प्रार्थना करें, कि हे कुश कल मैं किसी कारण से आपको आमंत्रित नहीं कर पाया था जिसकी मैं क्षमा चाहता हूं। लेकिन आज आप मेरे निमंत्रण को स्वीकार करें और मेरे साथ मेरे घर चलें। फिर आपको ऊं ह्रूं फट् स्वाहा इस मंत्र का जाप करते हुए कुश को उखाडऩा है उसे अपने साथ घर लाना है और एक साल तक घर पर रखने से आपको शुभ फल प्राप्त होंगे।
पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि। कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया।। अत: प्रत्येक गृहस्थ को इस दिन कुश का संचय करना चाहिए।
दस प्रकार के होते हैं कुश
शास्त्रों में दस प्रकार के कुशों का वर्णन मिलता है।
कुशा, काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका। गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा, सबल्वजा।।
यानि कुश, काश , दूर्वा, उशीर, ब्राह्मी, मूंज इत्यादि कोई भी कुश आज उखाड़ी जा सकती है और उसका घर में संचय किया जा सकता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि हरी पत्तेदार कुश जो कहीं से भी कटी हुई ना हो , एक विशेष बात और जान लीजिए कुश का स्वामी केतु है लिहाज़ा कुश को अगर आप अपने घर में रखेंगे तो केतु के बुरे फलों से बच सकते हैं।
कौन सा कुश उपयोगी है
कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है।
कुशा का ब्राह्मण के लिए महत्व
ब्राह्मण को नित्य कुश धारण करने का निर्देश देते हुए कहा गया है कि-
“यथेन्द्रस्याशनिर्हस्ते यथा शूलं कपर्दिन: ।
यथा सुदर्शनं विष्णोर्विप्रहस्तकुशस्तथा ।।
वरुणस्य करे पाशो यथा दण्डो यमस्य तु ।
तथा ब्राह्मणहस्तस्थ: सकलं साधयेत् कुश:।।”
अर्थात् जिस प्रकार देवराज इंद्र के हाथ में स्थित वज्र ,शंकर जी का त्रिशूल ,विष्णु का सुदर्शन चक्र ,वरुण देव का पाश, यमराज का दंड ,अमोघ होता है, वैसे ही ब्राम्हण के हाथ में स्थित कुश भी अमोघ एवं फलदाई होता है।
विप्र के लिए कुशा का आसन ही हाथी का वाहन है। वेद ही दिव्यास्त्र व धनुषधारी है, गायत्री उपासना ही उसकी सेना है, ऐसा विप्र सदैव रण में गर्जना करने वाला है ब्राह्मण कुशा पर बैठकर संध्या गायत्री जप वेद ध्वनि से युक्त हो। अतः गायत्री की उपासना अवश्य करें।
ज्ञानबल के सामने बाहुबल व्यर्थ है। एक ज्ञानदंड के सामने सभी अस्त्र- शस्त्र नष्ट हो जाते हैं। यथा
कुश कुंजर विप्राणाम, वेदो खड़ग धनुर्धरा।
गायत्री सर्व सैन्यानां ते विप्र रण गर्जिता।
धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलं।
एकेन ब्रह्म दण्डेन सर्वस्त्राणि हतानि मे।
कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या
भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शास्त्रों में कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहा जाता है। खास बात ये है कि कुश उखाडऩे से एक दिन पहले बड़े ही आदर के साथ उसे अपने घर लाने का निमंत्रण दिया जाता है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है।
कुशा से सम्बन्धित प्रचलित कथा
महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम कद्रू था और दूसरी का नाम विनता। कद्रू और विनता दोनों महार्षि कश्यप की खूब सेवा करती थीं। महार्षि कश्यप ने उनकी सेवा-भावना से अभिभूत हो वरदान मांगने को कहा। कद्रू ने कहा, मुझे एक हजार पुत्र चाहिए। महार्षि ने ‘तथास्तु’ कह कर उन्हें वरदान दे दिया। विनता ने कहा कि मुझे केवल दो प्रतापी पुत्र चाहिए। महार्षि कश्यप उन्हें भी दो तेजस्वी पुत्र होने का वरदान देकर अपनी साधना में तल्लीन हो गए।
कद्रू के पुत्र सर्प रूप में हुए, जबकि विनता के दो प्रतापी पुत्र हुए। किंतु विनता को भूल के कारण कद्रू की दासी बनना पड़ा। विनता के पुत्र गरुड़ ने जब अपनी मां की दुर्दशा देखी तो दासता से मुक्ति का प्रस्ताव कद्रू के पुत्रों के सामने रखा। कद्रू के पुत्रों ने कहा कि यदि गरुड़ उन्हें स्वर्ग से अमृत लाकर दे दें तो वे विनता को दासता से मुक्त कर देंगे।
गरुड़ ने उनकी बात स्वीकार कर अमृत कलश स्वर्ग से लाकर दे दिया और अपनी मां विनता को दासता से मुक्त करवा लिया। यह अमृत कलश ‘कुश’ नामक घास पर रखा था, जहां से इंद्र इसे पुन: उठा ले गए तथा कद्रू के पुत्र अमृतपान से वंचित रह गए।
उन्होंने गरुड़ से इसकी शिकायत की कि इंद्र अमृत कलश उठा ले गए। गरुड़ ने उन्हें समझाया कि अब अमृत कलश मिलना तो संभव नहीं, हां यदि तुम सब उस घास (कुश) को, जिस पर अमृत कलश रखा था, जीभ से चाटो तो तुम्हें आंशिक लाभ होगा।
कद्रू के पुत्र कुश को चाटने लगे, जिससे कि उनकी जीभें चिर गई इसी कारण आज भी सर्प की जीभ दो भागों वाली चिरी हुई दिखाई पड़ती है.l ‘कुश’ घास की महत्ता अमृत कलश रखने के कारण बढ़ गई और भगवान विष्णु के निर्देशानुसार इसे पूजा कार्य में प्रयुक्त किया जाने लगा।
जब भगवान विष्णु ने वराह रूप धारण कर समुद्रतल में छिपे महान असुर हिरण्याक्ष का वध कर दिया और पृथ्वी को उससे मुक्त कराकर बाहर निकले तो उन्होंने अपने बालों को फटकारा। उस समय कुछ रोम पृथ्वी पर गिरे। वहीं कुश के रूप में प्रकट हुए।
आपकी क्रिया – प्रतिक्रिया स्वागतेय है ।