भारतीय सनातन संस्कृति में पूजा-पाठ का एक विशेष स्थान है, और आरती इसका एक अनिवार्य अंग मानी जाती है। आरती केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि ईश्वर की उपासना का एक गहरा प्रतीक है। यह न केवल हमारे भक्तिभाव को प्रकट करती है, बल्कि ईश्वर के प्रति श्रद्धा और समर्पण की भी अभिव्यक्ति होती है। आइए समझते हैं कि पूजा के बाद आरती करने का क्या महत्व है।
आरती का अर्थ एवं महत्व
आरती संस्कृत शब्द ‘आरात्रिक’ से बना है, जिसका अर्थ होता है-अंधकार को दूर करना। जब दीपक या कपूर से ईश्वर की आराधना की जाती है, तो इसका अर्थ केवल प्रकाश फैलाना नहीं, बल्कि आत्मा के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करना भी है। यह हमें आंतरिक प्रकाश की ओर ले जाती है और आत्मा को पवित्र करने में सहायक होती है।
शास्त्रों में बताया गया है कि आरती शब्द संस्कृत के आर्तिका शब्द से बना है। जिसका अर्थ है, अरिष्ट, विपत्ति, आपत्ति, कष्ट और क्लेश। भगवान की आरती को नीराजन भी कहा जाता है। नीराजन का अर्थ है किसी स्थान को विशेष रूप से प्रकाशित करना।
‘विष्णुधर्मोत्तर पुराण‘ के अनुसार जो धूप, आरती को देखता है, वह अपनी कई पीढ़ियों का उद्धार करता है।
पद्म पुराण में आरती के लिए कहा गया है कि कुंकुम, अगर, कपूर, घी और चन्दन की सात या पांच बत्तियां बनाकर अथवा रुई और घी की बत्तियां बनाकर शंख, घंटा आदि बजाते हुए आरती करनी चाहिए।
आरती के महत्व की चर्चा सर्वप्रथम “स्कन्द पुराण” में की गयी है। आरती हिन्दू धर्म की पूजा परंपरा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है। किसी भी पूजा पाठ, यज्ञ, अनुष्ठान के अंत में देवी-देवताओं की आरती की जाती है। आरती की प्रक्रिया में, एक थाल में ज्योति और कुछ विशेष वस्तुएं रखकर भगवान के समक्ष घुमाते हैं।
थाल में अलग अलग वस्तुओं को रखने का अलग अलग महत्व होता है पर सबसे ज्यादा महत्व होता है, आरती के साथ गाई जाने वाली स्तुति का. जितने भाव से आरती गाई जायेगी, उतना ही ज्यादा यह प्रभावशाली होगी।
आरती में समाए हैं पंचमहाभूत तत्व
इस संसार की रचना पंच महाभूतों, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से हुई है, इसलिए आरती में ये पांच वस्तुएं भी शामिल रहती हैं। पृथ्वी की सुगंध कपूर, जल की मधुर धारा घी, अग्नि दीपक की लौ, वायु लौ का हिलना, आकाश घण्टा, घण्टी, शंख, मृदंग आदि की ध्वनि का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आरती का में क्या महत्व कर्पूर मंत्र घर हो या मंदिर, भगवान की पूजा के बाद आरती की जाती है। बिना आरती के कोई भी पूजा अपूर्ण मानी जाती है। इसलिए पूजा शुरू करने से पहले लोग आरती की थाल सजाकर बैठते हैं।
पूजा में आरती का इतना महत्व क्यों हैं इसका उत्तर स्कंद पुराण में मिलता है। इस पुराण में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति मंत्र नहीं जानता, पूजा की विधि नहीं जानता लेकिन आरती कर लेता है तो भगवान उसकी पूजा को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेते हैं। आरती का धार्मिक महत्व होने के साथ ही वैज्ञानिक महत्व भी है।
पूजा के बाद आरती क्यों की जाती है ?
- ईश्वर की कृपा प्राप्ति: माना जाता है कि जब हम ईश्वर की आरती करते हैं, तो उनकी कृपा हम पर बरसती है। पूजा के अंत में आरती करने से वातावरण में एक सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है।
- संकल्प की पुष्टि: पूजा के दौरान किए गए संकल्प को आरती के माध्यम से अंतिम रूप दिया जाता है। यह दर्शाता है कि हमने अपनी श्रद्धा, भक्ति और समर्पण को पूर्ण रूप से ईश्वर के चरणों में अर्पित कर दिया है।
- नेत्र एवं मन को शुद्ध करना: आरती के प्रकाश को देखने से हमारी दृष्टि और मन शुद्ध होते हैं। यह ध्यान और मानसिक शांति प्रदान करती है।
- ध्वनि और ऊर्जा का प्रभाव: घंटी, शंख और आरती के भजन की ध्वनि नकारात्मक ऊर्जा को दूर करती है और वातावरण को पवित्र बनाती है। यह ध्वनि तरंगें हमारे मन और शरीर में सकारात्मक प्रभाव डालती हैं।
- समूहिक भक्ति और आध्यात्मिक एकता: आरती सामूहिक रूप से गाई जाती है, जिससे भक्तों में एकता और भक्ति की भावना प्रबल होती है। यह सामूहिक ऊर्जा हमें आध्यात्मिक रूप से सशक्त बनाती है।
आरती के दौरान विशेष नियम एवं परंपराएँ
- आरती करने से पहले हाथ धोने चाहिए और शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए।
- आरती को हमेशा दक्षिणावर्त (घड़ी की सुई की दिशा में) घुमाना चाहिए।
- कपूर या घी का दीपक जलाकर आरती करना अधिक शुभ माना जाता है।
- आरती के बाद उसे अपने ऊपर से उतारकर प्रसाद स्वरूप ग्रहण करना चाहिए।
निष्कर्ष
सनातन संस्कृति में आरती केवल एक धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि आत्मिक शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का माध्यम है। यह ईश्वर के प्रति प्रेम, भक्ति और समर्पण का प्रतीक है। पूजा के बाद आरती करने से न केवल हमारा मन शांत होता है, बल्कि हमारे चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का संचार भी होता है। इसीलिए, प्रत्येक पूजा के अंत में आरती करना अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।
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